Friday, June 12, 2009

नीलाम्बर

नही है शब्द मेरे पास बयान करने के लिये
जो देखा उस रात इन नजरो ने
था वह द्रुश्य अवर्णनीय
जब मिल रहे थे धरती और आकाश |

रही मै देखती मन्त्रमुग्ध होकर
उन लम्हों को
जब छुआ चन्द्रमा की दिव्य किरणो ने
सागर की शितल लेहेरो को|


अदभुत शान्त वातवरण मै
सागर की लेहेरे मचा रही थी हिलोर
ऐसा लग रहा था मनो
चान्दनी रात के मध्य सन्गीत के साथ
लगा हो सागर लेहेरो रुपी न्रुत्यन्गना का रन्गमन्च।

रही मै डुबी उस सन्गीत और शीतल वातवरन मै सुधबुध खोकर
थे नही शब्द मेरे पास फिर भी की है एक कोशीश
उस अदभुत द्रुश्य को बयान करने की
जो देखा इन निगाहो ने उस रात |